भारत की आजादी का सही इतिहास
(Bharat Ki Azadi Ka Itihas)
भारत के इतिहास की यदि बातें करें या फिर भारत की सभी छोटी बड़ी राजनैतिक पार्टियों के प्रचार प्रसार में प्रयोग किये गए कथनों की बातें करें तो प्रायः इन सभी के द्वारा यह प्रचारित किया जाता रहा है कि भारत को मोहनदास करमचंद गांधी ने आजाद कराया ! कम्युनिष्टो और मुस्लिम इतिहासकारो के द्वारा यह झूठा प्रचार प्रसार किया गया, झूठे इतिहास लिखे गए, उन्हें स्कूलों में, कॉलेजों में, विश्वविद्यालयो में पढ़ाया गया । हो सकता है, आप में से भी कई लोगो को इस प्रचार में सच्चाई लग रही हो ! हो सकता है, आप भी इनसब की बातों में आकर इन्ही प्रचार प्रसार को सच मान बैठे हो ! लेकिन हम आज आपकी आँखे खोलने वाले है और वे भी पुरे तथ्यों के साथ। पूरी पारदर्शिता के साथ !
तो हम यहाँ बात कर रहें है, देश की आजादी के वास्तविक कारण की। हम यहाँ इसका विश्लेषण करेंगे ! पता लगाएंगे कि भारत कैसे आजाद हुआ? भारत की आजादी के असली कारण क्या थे? (Bharat Ki Azadi Ke Asli Karan) .... किन कारणों से भारत स्वतंत्र हो पाया ? (kin karno se bharat swatantra ho paya).... भारत को किसने आजाद कराया था ? (Bharat Ko Kisne Azad Karaya). वे क्या कारण थे जिनके कारण भारत को 1947 में आजादी मिली ! ..... वे क्या कारण थे जिनके कारण भारत 1947 में स्वतंत्र हो पाया ! जैसे कई प्रश्नो का विश्लेषण करेंगे! देश के इतिहास के साथ हुए घिनौने खिलबाड़ व राजनैतिक दलों के कुप्रचार पर प्रहार करेंगे और वो भी पुरे तथ्यों के साथ !
इसलिए यह जानकारी आज आपको अवश्य पढ़नी चाहिए । इस रिसर्च को तैयार करने में हमने पूरी निष्ठा का पालन किया है । ऐसी जानकारी आपको किसी न्यूज वेबसाइट (News Website) या अन्य किसी वेबसाइट (Other Websites) पर शायद ही मिलेगी । ज्यादातर एकपक्षीय होते है, जबकि हम इससे ऊपर उठकर निष्पक्ष विश्लेषण कर रहें है। इस तथ्य को तैयार करने में हमने न किसी पक्ष के साथ अन्याय किया है और न ही किसी का अनावश्यक साथ दिया है । इसलिए आँखे खोलने वाले इस तथ्य को आप अवश्य पढ़े !
लेकिन इससे पहले भारत के स्वतंत्रता संग्राम की संक्षिप्त चर्चा करना आवश्यक है!
1600 ई से 1757 ई तक का समय
1600 ई में ब्रिटेन की एक कंपनी जिसका नाम ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) था, उसे ब्रिटेन की महारानी (Britain Ki Maharani) की ओर से विदेश में जाकर व्यापार (Foreign Business) करने की स्वीकृति मिल गई। स्वीकृति मिलने के बाद ईस्ट इण्डिया कंपनी का पहला जहाज सं 1608 में सूरत का बंदरगाह पहुंचा लेकिन तब तक भारत के कुछ क्षेत्रो पर फ्रेंच, पुर्तगाली और डचो ने व्यापारिक अधिकार जमा लिया था, परिणामतः ईस्ट इंडिया कंपनी को उससे सीधी टक्कर लेनी पड़ी और धीरे धीरे उसने तीनो को किनारे कर दिया।
अब कम्पनी भारत के अलग अलग छोटे छोटे राज्यों के राजा के दरवार में अपनी पहुँच बढ़ानी शुरू की। वे उन्हें भांति भांति के प्रलोभन देने लगी। जब वे लोग उनके प्रलोभनों में आने लगे तब उसने अपनी पहुंच को और आगे बढ़ाया अब वे शासन प्रशासन में भी हस्तक्षेप करने लगे। इसके लिए कंपनी ने सीधी लड़ाई लड़ने के बदले 'फूट डालो शासन में हस्तक्षेप करो वाली' '(Divide and Rule)' नीति का पालन किया। इस नीति के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी को एक साथ दो-दो लाभ हो गए, पहला यह कि पहले से स्थापित कम्पनी या तो उनके मार्ग से हट गए या वे किसी विशेष क्षेत्र तक सिमित हो गए और इससे दूसरा लाभ यह हुआ कि उसे शासन में अपनी पहुंच और विश्वास बढ़ाने में जबर्दस्त सफलता मिली।
कम्पनी इसी नीति पर लगातार आगे बढ़ती रही लेकिन धीरे धीरे अब वह शक्ति का भी प्रयोग करने लगी। उसी का परिणाम था, 1757 का पलासी का युद्ध हुआ।
इस युद्ध में कंपनी का तब के गढ़ कहे जाने वाले मद्रास जो आज चेन्नई के नाम से जाना जाता है, वहां से राबर्ट क्लाइव एक छोटी सी सेना की टुकड़ी लेकर बंगाल पर विजय प्राप्त कर लिया और जीत के बाद मीर जाफर को वहां का शासक बना दिया मगर जल्द ही कंपनी को लगने लगा कि अब उसे शासन में प्रत्यक्ष रूप से आना चाहिए। इसलिए 1765 में मीर जाफर की मौत के बाद मुगल सम्राट के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल का दीवान बना दिया गया नाम दिया गया - कंपनी बहादुर ! यही से शुरू हुआ ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) का भारत (India) के शासन में प्रत्यक्ष भागीदारी।
1757 ई से 1857 ई तक का समय
इतने वर्षो पर शासन में अप्रत्यक्ष भूमिका निभाने के क्रम में अंग्रेजो को लग गया कि यहाँ शासन अपने हाथ में लेना कोई बड़ी बात नहीं है क्योकि अधिकांश लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के झांसे में आसानी से आ रहे थे। इसमें राजा महाराजा से लेकर जनता तक शामिल थे। धीरे धीरे उसने अपना विस्तार करना शुरू किया और 1857 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपनी मजबूत पकड़ बना ली।
इसके बाद कुछ राष्ट्रवादी शासको को, लोगो को अब समझ में आने लगी कि अग्रेज उनके साथ धोखा कर रहे है। परिणामतः 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध लड़ा गया। उस आंदोलन की आग झांसी, अवध, बिहार व दिल्ली सहित देश के कई क्षेत्रो में फैल गई। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम 1857 (India's First War of Independence) में महान स्त्री पुरुषो ने जान की बाजी लगाकर युद्ध लड़ा। रानी लक्ष्मीबाई (Great Indian Lady Freedom Fighter Rani Laxmi Bai) सहित कई शासको ने भयानक युद्ध लड़ा। एक समय तो ऐसा लगा कि अंग्रेजो के पॉंव यहाँ से उखड़ जायेगे लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अग्रेजो को यहाँ की लत लग चुकी थी। उसे समझ में आ गई थी कि यहाँ के लोगो को अपनों से तोडना बहुत आसान है। तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी एक ओर जहाँ अपनी नीति 'फूट डालो शासन करो' (Divide and Rule Policy) के दम पर मजबूत पकड़ बना चुकी थी वही दूसरी ओर उन्हें कई देशद्रोहियों व गद्दारो का भी खुला सहयोग मिला। परिणामतः ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने में पूरी तरह से सफलत हो गए। अनेक हिन्दू स्त्री पुरुष मारे गए।
अब इस युद्ध के बाद भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से ऊपर सीधे ब्रिटेन के हाथ में चला गया। 1958 में ब्रिटेन की संसद में एक विशेष कानून पारित किया गया, जिसमे भारत का सम्पूर्ण शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से हटाकर ब्रिटेन की महारानी के हाथ में हस्तांतरित कर दिया। इस प्रकार 1858 से भारत में प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन स्थापित हो गया और भारत पर ब्रिटेन का अधिकार हो गया।
भारत की आजादी में गांधी का आगमन – 1915 - 1947 (भारत की आजादी में गांधी की भूमिका)
1915 में गांधी (Gandhi) का दक्षिण अफ्रीका (South Africa) से भारत आना हुआ। भारत आने के बाद गांधी भ्रम का शिकार थे। यह देश उनके लिए अनजान था। लेकिन उसी बीच गांधी के गुरू कहे जाने वाले गोपालकृष्ण गोखले ने उन्हें भारत के आंदोलन में भाग लेने को कहा। अपने गुरु के कहने पर गांधी ने आंदोलन में आने का निर्णय तो ले लिया लेकिन गांधी के लिए यह आंदोलन करना कठिन था क्योंकि यह देश उनके लिए अनजान सा था। इसलिए देश की सभ्यता संस्कृति को समझने के लिए गांधी ने देश के कई क्षेत्रो का दौरा किया। वैसे तो गांधी भारत के ही रहने वाले थे मगर पढाई से लेकर वकालत तक उन्होंने अपनी जिंदगी विदेशी धरती पर ही बिताई थी। अब यही कारण था कि उन्हें भारतीय सभ्यता संस्कृति, रहन सहन, सोच समझ की जानकारी नहीं थी। वे अंग्रेजो की नकल किया करते थे। उनकी जीवन शैली में जीना पसंद किया करते थे। ये बातें उनकी कई आत्मकथाओ में भी है।
इसलिए भारत को ठीक से समझने के लिए गांधी ने देश भर का दौरा किया। भारत की सभ्यता संस्कृति को समझने में अपना समय बिताया। अब यह अलग बात है कि वे उसे मरते दम तक कभी समझ नहीं पाए अगर समझ पाते तो भारत का स्वरूप कुछ और होता। उन्होंने मुस्लिम तुस्टीकरण को ही अपनी मुख्य नीति में शामिल कर लिया था, जिसका परिणाम भारत व भारत में रहने वाले हिन्दू आजतक भुगत रहे है। मगर यह सच है कि गांधी ने उस समय देश भर का दौरा किया था। लोगो को यह दिखलाने का प्रयास किया कि कोई नेता उसके बीच आया है। यह ठीक वैसे ही था जैसे कांग्रेस के राहुल गांधी ने भारत भ्रमण किया था।
1915 - 1947
भारत के इतिहास (Indian History) में यदि आप देखेंगे तो आप पाएंगे कि 1915 से 1947 तक के समय को गांधी युग के नाम से अंकित किया है। मानो उसके अलावे कोई दूसरा स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध लड़ ही नहीं रहा था। भारत के इतिहास में जिस तरह से मनगंढत बातें लिखी गई, जिस तरह से छेड़छाड़ की गई है, वह शायद ही किसी बड़े देश के साथ यह हुआ हो। सम्पूर्ण इतिहास में गांधी का महिमामंडन किया गया है।
किसी को यह अधिकार नहीं है कि देश के करोड़ो हिन्दुओ का जीवन नर्क करने वाले गांधी का इतना बड़ा महिमामंडन करें। लेकिन यह क्रम आज तक जारी है। अब वोट बैंक की जो बात है। कुछ लोग भी उनके बहकावे में आ जाते है। अन्य के पास इतना समय नहीं है कि वास्तविकता का पता लगाए और जिसके पास समय है, साधन है, उसे अपने वोट बैंक और तुस्टीकरण, कट्टरता से छुटकारा पाना कठिन है। अब भला मुस्लिम या कम्युनिष्ट यह काम क्यों करेंगे या फिर अम्बेडकरवादी गांधी के विरुद्ध क्यों बोलेंगे। अब बचे थोड़े से हिन्दू ! वो हिन्दू, जिसको नेताओ ने, राजनीतिक पार्टियों (Political Parties) ने जातियों में तोड़ रखा है मगर वही नेता, वही राजनीतिक दल हिन्दू मुस्लिम भाईचारे की बात भी करते है। हैं न कमाल की बात ! हिन्दुओ को जातियों में बांटो और हिन्दू - मुस्लिम एकता की बात करो !
भारत के संविधान में कही पर भी नहीं लिखा है कि गांधी देश के राष्ट्रपिता है, बापू है !
गांधी के नेतृत्व में हुए आंदोलन –
• 1919 का सत्याग्रह आंदोलन
• 1920-21 का असहयोग आंदोलन
• 1929 – 30 में स्वराज प्रस्ताव पास
• 1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन
• 1942 का करो या मरो के साथ नारा देकर आंदोलन
ऊपर दिए आंदोलन में गांधी का अंतिम आंदोलन अधिक चर्चित रहा था मगर इसके बावजूत गांधी का वह आंदोलन भी पूर्णतः असफल था।
लेकिन बुरी तरह से असफल होने के बाद भी गांधी के उस आंदोलन के बारे में इतिहास (Indian History) में जोर शोर से बताया गया है जबकि इतिहास में उसी अवधि में किये गए एक दूसरे आंदोजन को या तो गौण कर दिया है या कम महत्व के साथ संक्षिप्त वर्णन किया गया है क्योंकि वह आंदोजन गांधी गुट के व्यक्ति ने नहीं किया था, वह आंदोलन कांग्रेस (Congress) ने नहीं किया था। वह आंदोलन गैर कांग्रेसी ने किया था, इसलिए यहाँ उसपर चर्चा करना अनिवार्य है। उस उग्र और प्रभावशाली आंदोलन को करने वाले थे - महान स्वतंत्रता संग्राम योद्धा सुभाष चंद्र बोस। (Subhash Chandra Bose Was a Great Indian Freedom Fighter). सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजो की जमीन खोद दी थी। कहते है यदि सुभाष चंद्र बोस कुछ और दिन जीवित रह जाते तो आज देश की स्थिति अलग होती! न पाकिस्तान होता और न कांग्रेस का वर्चस्व ! न आज मुस्लिम तुस्टीकरण वाली कोई राजनीतिक दल होता और न ही भेदभाव से भरा संविधान ! आज न गांधी के नाम पर राजनीति होती और न ही देश में अशांति होती ! क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के लिए मुस्लिम तुस्टीकरण जैसा कोई आधार ही नहीं रहता।
भारत के सबसे बड़े और सबसे प्रभावशाली क्रांतिकारी थे सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose)
सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) 1940 तक कांग्रेस के चाल चलन से परेशान हो गए थे। उन्हें स्पष्ट लग रहा था कि कांग्रेस पर गांधी और नेहरू का दबदबा है। गांधी नेहरू अंग्रेजो से प्रभावित लोगो में से एक थे। उन्हें भारत की सभ्यता संस्कृति से कोई लेना देना नहीं था। हाँ उन्हें यदि कुछ था तो बस अपनी बाहवाही और वर्चस्व का डंका बजवाने में मजा आता था। उन्हें मुस्लिम की क्रूरता नहीं दिखती थी बल्कि वे मुस्लिम तुस्टीकरण के लिए रात दिन काम कर रहे थे।
परिणामतः सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस पार्टी (Congress Party) छोड़कर 1941 में जर्मनी के मार्ग से सिंगापुर पहुंच गए। वहाँ उन्होंने आजाद हिन्द फौज (Azad Hindi Fauj) की स्थापना की। उन्होंने भारतीयों को एकजुट किया। उनका राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम होने लग गया। देश में हर ओर उनका गुणगान होने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे देश अब आजाद होकर ही रहेगा। उनके बढ़ते नामो से न केवल अंग्रेज बल्कि देश के ही कई और लोग भी परेशान हो रहे थे। गांधी नेहरू सहित कांग्रेस को सुभास चंद्र बोस का काम पसंद नहीं आ रहा था।
इसी तरह उन्होंने 1944 में इम्फाल और कोहिमा के मार्ग से आजाद हिंदी फौज (Indian National Army) की सहायता से अंग्रजो पर आक्रमण करने की कोशिश की मगर सब व्यर्थ गया क्योकि अंग्रेजो ने देश के ही भेदियों की सुचना पर उनकी फौज को समय से पहले ही घेर लिया और इस तरह आजाद हिंदी फौज असफल रहा। कई अधिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में सुभाष चंद्र बोस भी गुमनाम हो गए।
कोई नहीं जानता सुभाष चंद्र बोस के साथ क्या हुआ ! कोई नहीं जानता सुभाष चंद्र बोस देश के अपने ही गद्दारो के शिकार हो गए थे या उनके साथ कोई अनहोनी घट गई थी !
अब प्रश्न उठता है जब सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज अपने उद्देश्य में असफल रही तो क्या फिर देश को आजाद कौन कराया ? क्या गांधी भारत के आजादी के नायक थे क्या गांधी ने ही देश को आजाद कराया ? क्या गांधी के आंदोलनों ने देश को आजाद कराया ? क्या गांधी के चरखा और लाठी ने देख को आजाद कराया ? क्या देश गांधीगिरी से आजाद हुआ था ? क्या गांधी के तथाकथित सत्य और अहिंसा से देश आजाद हुआ था ? क्या देश की आजादी में लोगो ने जाने नहीं दी ? क्या देश गांधी के अहिंसा के दम पर आजाद हो गया ?
सच्चाई इससे बिलकुल उलट है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जितने लोगो की जानें गई थी उतनी जानें विश्व के किसी भी देश की आजादी में नहीं गई थी।
1947 में भारत के स्वतंत्र होने के पीछे निम्नलिखिल महत्वपूर्ण कारण थे
भारत के 1947 में आजाद होने के जो कारण नीचे दिए जा रहे है, उन्हें भारत के वामपंथी और मुस्लिम इतिहासकारो ने हमेशा छिपाकर रखा मगर यह सर्वविदित है और इसे छिपाया नहीं जा सकता है। भारत की आजादी के वास्तविक कारण नीचे दिए गए है (Bharat Ki Azadi Ke Karan)-
1. द्वितीय विश्वयुद्ध
भारत की आजादी में द्वितीय विश्वयुद्ध ने अपनी भूमिका निभाया था। यह युद्ध १९३९ से १९४५ तक चला था। इस युद्ध में दो गुटों में युद्ध हो रहा था। एक धुरी राष्ट्र तो दूसरा मित्र राष्ट्र। धुरी राष्ट्र में जर्मनी, इटली और जापान शामिल थे जबकि मित्र राष्ट्र में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन और सोवियत संघ रूस शामिल थे। यह युद्ध इतिहास का सबसे भयानक युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। इसमें सैनिक व असैनिक मिलाकर लगभग आठ करोड़ लोग मारे गए थे। वैसे तो इस युद्ध में ब्रिटेन की विजय हुई थी मगर वह अंदर से खोखला हो चुका था। उसके पास अब इतनी शक्ति शेष नहीं बची थी कि अब वह भारत जैसे बड़े देश में उतनी दूर से आकर किसी बड़े आंदोलन को दबा सके। परिणामतः उसके पास भारत को स्वतंत्र करने के अलावे कोई विकल्प शेष नहीं बचा था।
2. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व महाशक्ति के रूप में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका उभरकर सामने आया
इस युद्ध ने जहाँ ब्रिटेन को तोड़ कर रख दिया था, वही इस युद्ध ने अब विश्व की राजनीतिक स्थिति को भी बदल दिया था। अब ब्रिटेन विश्व का सबसे शक्तिशाली देश नहीं रह गया था। अब वह अमेरिका के पीछे पीछे चलने वाला एक देश बन कर रह गया था। लेकिन अमेरिका की सोच समझ ब्रिटेन से अलग थी। वह नहीं चाहता था कि ब्रिटेन भारत पर अपना अधिकार बनाये रखे क्योकि वह भी एक समय गुलामी का दंश झेल चुका था। इधर ब्रिटेन के पास इतनी शक्ति नहीं बची थी कि वह अब भविष्य में सैकड़ो वर्षो बाद भी अमेरिका से आगे निकल सकें क्योकि उसका सूरज अस्त हो चुका था। इस कारण उसपर भारत जैसे बड़े देश को आजाद करने की विश्व पटल पर दबाव बढ़ रहा था।
3. नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज की सेना
नेता जी सुभाष चंद्र बोस द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले भूतपूर्व भारतीय सैनिको और अन्य देशवासियों के सहयोग से आजाद हिन्द फौज की स्थापना कर दी थी। नेता जी कांग्रेस की चाल और चरित्र से नाराज थे। कांग्रेस पर गांधी नेहरू की आवश्यकता से अधिक पकड़ थी। वे दोनों अपनी मनमानी करने की नीति को ही कांग्रेस की नीति बना दी थी। नेताजी को यह पसंद नहीं था। वे जानते थे गांधी का अंग्रेजो के साथ इन भाईचारे वाले आंदोलन से न ज्यादा कुछ हुआ है और न ही निकट भविष्य में ज्यादा कुछ होने वाला है। गांधी के आंदोलन में देश के लाखो हिन्दू स्त्री पुरूषों की जान जा रही थी मगर गांधी अंग्रजो के साथ अपनी मित्रता निभाने में लगे थे। परिणामतः उन्होंने कांग्रेस से 1941 में त्यागपत्र दे दिया और 1941 में ही जर्मनी के मार्ग से सिंगापुर पहुंच गए। वहाँ उन्होंने आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। उन्होंने भारतीयों को एकजुट किया। उनका राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम होने लग गया। देश में हर ओर उनका गुणगान होने लगा। ऐसा लग रहा था जैसे देश अब आजाद होकर ही रहेगा। उनके बढ़ते नामो से न केवल अंग्रेज बल्कि देश के ही कई और लोग भी परेशान हो रहे थे। गांधी नेहरू सहित कांग्रेस को सुभाष चंद्र बोस का काम पसंद नहीं आ रहा था।
लेकिन इसी तरह उन्होंने 1944 में इम्फाल और कोहिमा के मार्ग से अंग्रेजो पर आक्रमण करने की कोशिश की मगर सब व्यर्थ गया क्योकि अंग्रेजो ने देश के ही भेदियों की सुचना पर उनकी फौज को समय से पहले ही घेर लिया और इस तरह आजाद हिंदी फौज असफल रही। कई अधिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में सुभाष चंद्र बोस भी गुमनाम हो गए। कोई नहीं जानता सुभाष चंद्र बोस के साथ क्या हुआ ! नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhash Chandra Bose) का प्रयास असफल हो गया था मगर नेताजी (Netaji) असफल होकर भी सफल हो गए थे।
नेताजी के विरूद्ध कार्रवाई करने के कारण ही भारत में ब्रिटेन के विरूद्ध नौसैनिकों का विद्रोह हो गया था। यह विद्रोह इतना भयानक था, जो अंग्रेजो को अंदर से खोखला कर दिया था। कारण यह था कि अब वे भारतीय सैनिक भी अंग्रेजो के विरूद्ध हो गए थे, जिन्होंने अब तक अंग्रेजो के आदेश से यही के लोगो की हत्या की थी और जिनके दम पर अंग्रेज यहाँ शासन चला रहे थे। अब उन सैनिको में भी भारतीयता जाग गई थी। अब वे मूल भारतीय सैनिक भी अंग्रेजो के विरूद्ध विद्रोह कर दिया था। लेकिन ये सब गांधी के सत्य व अहिंसा के कारण नहीं बल्कि नेता जी की शक्ति का ही चमत्कार था। नेता जी सुभाष चंद्र बोस असफल होकर भी अपने मूल उद्देश्य में सफल हो गए थे।
इस तरह से देश की आजादी में नेताजी की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश की आजादी के सबसे बड़े नायक थे। भारत की आजादी में विशेषकर अंतिम समय में नेताजी की भूमिका सबसे अधिक थी।
4. भारत का पहले से अधिक विकास हो जाना
देश की आजादी में यह बिंदु भी महत्वपूर्ण है। भले ही भारत उस समय भी गरीब और परेशान था। लोग भूखे मरते थे मगर फिर भी अब अंग्रेजो को भारत से लूटने के लिए अधिक कुछ नहीं बचा था। उलटे अब अंग्रेजो को ही यहाँ कुछ लगाने का दबाव बढ़ रहा था। परिणामतः भारत उसके लिए सिरदर्द बनता जा रहा था।
5. ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत की आजादी समर्थक लेबर पार्टी का आना
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जुलाई, 1945 में ब्रिटेन में आम चुनाव हुआ था। उस चुनाव में ब्रिटेन की तब की विरोधी पार्टी जिसका नाम लेबर पार्टी था, उसने कंजर्वेटिव कैंडिडेट और ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल को भारी बहुमत से हराया था। लेबर पार्टी का नेतृत्व तब के समय क्लिमेंट रिचर्ड एटली कर रहें थे। लोगो को चौकातें हुए 50% मत के साथ 151 सीटों के भारी बहुमत को लेकर लेबर पार्टी सत्ता में आ गई। चुनाव में मिली हाहाकारी विजय के बाद क्लिमेंट रिचर्ड एटली ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने।
जहाँ विस्टन चर्चिल भारत की आजादी के विरुद्ध थे वही एटली भारत की आजादी पक्ष में थे। यहाँ तक कि भारत को आजाद करना लेबर पार्टी के 'चुनाव घोषणापत्र' तक में शामिल था। इतना ही नहीं जीत के बाद उनकी पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में भारत को जिम्मेदार स्वशासन की ओर आगे बढ़ाने का वादा तक किया गया था और अब हाहाकारी बहुमत के साथ उन्ही की पार्टी सत्ता में आ गई थी। इसलिए भारत के लिए आजाद होने का मार्ग बिलकुल आसान हो गया। चुनाव जीतते ही एटली ने भारत को आजाद करने की प्रक्रिया पर काम शुरू कर दिया।
क्लिमेंट रिचर्ड एटली (Clement Richard Attlee) की गिनती बीसवीं सदी की सबसे उग्र सुधारवादी सरकारों में होती है। वे देश में सुधार के लिए उग्र सुधारवादी नीति को लागू करने में जरा भी नहीं हिचकते थे। एटली 1945 से 1951 तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के पद पर रहे थे। उन्ही के शासनकाल में भारत आजाद हुआ था। यह घोर आश्चर्य की बात थी कि लेबर पार्टी को उससे पहले और उसके बाद फिर कभी भी वैसी हाहाकारी बहुमत नहीं मिली थी। शायद भगवान ने भारत को आजाद करने के लिए ही उसे सत्ता सौंपा था।
6. गांधी जी का आंदोलन
भारत में गांधी जी के नेतृत्व में लगातार आंदोलन किये जा रहे थे, जो अंग्रेजो के लिए सिरदर्द बना हुआ था। समय समय पर किये गए आंदोलन को दबाने में अंग्रेजो को बहुत शक्ति लगानी पड़ रही थी, जिसके लिए वे अब न तो आर्थिक रूप से और न ही मानसिक रूप से पहले की तरह मजबूत रह गए थे। परिणामतः उसके लिए भारत को आजाद करना एक सिरदर्द से छुटकारा पाने जैसा था।
7. अमेरिका के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का होना
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व में 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हो गई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ का उद्देश्य भविष्य में ऐसे विनाशकारी युद्धों को टालना था। संयुक्त राष्ट्र संघ में ब्रिटेन भी स्थायी सदस्य था जबकि भारत भी इसके घोषणा पत्र पर हस्ताक्षकर करने वाले देशो में से एक था। भारत ने 26 जून, 1945 को यूएन के चार्टर पर हस्ताक्षर किया था, जो 30 अक्टूबर, 1945 को यूएन के चार्टर की पुष्टि के बाद इसके अस्थायी सदस्य में अपना नाम अंकित कर लिया था।
वैसे यह बात बिलकुल सही है कि भारत की आजादी में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका शून्य थी मगर इसके बावजूद विश्व पटल पर अमेरिका के प्रभाव वाले एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना होने से ब्रिटेन पर भारत को अब और अधिक समय तक अधीन न रखने की मानसिक दबाव जरूर बढ़ गया था।
8. भारत की जनता में अंग्रेजो को लेकर भयंकर आक्रोश
भारत पर अंग्रेजो का लम्बे समय से राज था। करीब दो सौ वर्षो से शासन था मगर प्रश्न यह उठता है कि अंग्रेज उतने दूर से आकर भारत जैसे विशाल देश पर अपना शासन कैसे स्थापित कर पाया और केवल स्थापित ही नहीं बल्कि सदियों तक शासन भी चलाया। इसके पीछे जो कारण है वह यह है कि उन्हें यहाँ के ही लोगो का साथ मिल रहा था। अंग्रेजो के पास अपनी बहुत थोड़ी सी ही सेना थी जो मूल रूप से अंग्रेजी जमीन से यहाँ आयी थी और उनमें भी अधिकांश अधिकारी वर्ग ही थे जबकि अंग्रेजो ने सेना के तौर पर यहाँ के ही लोगो को बहाल कर लिया था। अर्थात भारतीय ही भारतीय को मार रहे थे क्योंकि वे अंग्रेजो के सैनिक थे, वे अंग्रेजो के खरीदे हुए आदमी थे।
इस तरह शुरू से ही यहाँ के शासक वर्ग हो या देश की कुछ जनता हो दोनों ही अंग्रेजो के भयानक इरादों को भांपने में नाकाम रहें थे, जिससे अंग्रेजो को यहाँ शासन स्थापित करने में ज्यादा कठिनाइयां नहीं आयी। अंग्रेजो ने शुरू से ही 'फूट डालो शासन करो' वाली नीति पर काम किया जबकि राष्ट्रवादी जनता और शासक वर्ग शुरू से ही अंग्रेजो से लड़ रहे थे मगर संख्या बल में कम होने के कारण वे या तो असफल हो रहे थे या फिर मारे जा रहे थे या बलिदान चढ़ रहे थे या फिर मृत्यु से भी बद्तर काले पानी जैसे भयंकर सजा भुगत रहे थे। हालांकि उन सभी का इतिहासकारो ने कही भी जिक्र नहीं किया है। वे स्वतंत्रता के गुमनाम नायक - नायिका हैं। लेकिन एक समय ऐसा भी आ गया जब अग्रेजो से घृणा करने वालो में वे लोग भी शामिल हो गए जो कभी उनका गुणगान करते नहीं थकते थे। परिणामतः अग्रेजो के लिए अब अधिक समय तक भारत में शासन चलाना कठिन हो गया था।
9. बिना सहमति के अंग्रेजो ने भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध की अग्नि में झोंक दिया
द्वितीय विश्वयुद्ध जो 1939 से 1945 तक चला था और जो विश्व का आज तक का सबसे भयानक व सबसे अधिक जान माल की क्षति वाला युद्ध भी था, उसमें अंग्रेजो ने भारत को जबर्दस्ती धकेल दिया। 20 लाख से भी अधिक भारतीयों को सैनिक के नाम पर धुरी देशो के विरुद्ध युद्ध लड़ने के लिए विभिन्न देशो में भेज दिया। कहते है, उनमें से अधिकांश तो भारत कभी लौट भी नहीं पाएं, कई गुमनाम हो गए, अनेक जहाँ तहाँ मारे गए, कई अपाहिज होकर स्वदेश लौटने में सफल रहें तो कई घायल होकर स्वदेश लौटने में सफल रहें। करीब करीब 90 हजार भारतीय सैनिक उस युद्ध में मारे गए।
अंग्रेजो ने न केवल लोगो को सैनिक के नाम पर बाहर भेजा बल्कि सभी देशी रियासतों से युद्ध के लिए धनराशि भी वसूल की। अंग्रेज इतना अन्याय करके यही नहीं रुके थे बल्कि उन गोरो ने धनराशि के अलावे देश के किसानो की घोर मेहनत से उगाया हुआ अनाजों को भी बड़े पैमाने पर ब्रिटेन और उसके मित्र राष्ट्रों को यहाँ से उठाकर वहां भेजने लगें। इससे भारत में अनाजों की भारी कमी हो गई। पहले से ही भूखे लोग अब पूरी तरह से भुखमरी के शिकार हो गए थे। इससे लोगो में अंग्रेजो के विरुद्ध घृणा चरम पर पहुंच गई थी और अब भारत के लोग किसी भी हाल में अंग्रेजो को यहाँ से भगाने के लिए तत्पर थे। परिणामतः अंग्रेजो को यहाँ से भागना पड़ा।
10. बंगाल का अकाल
बंगाल का अकाल !!! ये शब्द आज भले ही साधारण से लग रहे होंगे मगर सं 1943 में आये बंगाल के अकाल ने भारत में लगभग प्रलय ला दिया था। बंगाल, वर्तमान बांग्लादेश, उड़ीसा, बिहार (आज का झारखण्ड सहित) उस अकाल से त्राहि त्राहि बोल रहा था। गांव के गांव साफ हो रहें थे। कब किसकी अर्थी उठ जायेगी यह बताना कठिन था। लाशो की गिनती कठिन थी। अनेक लोग आत्महत्या कर रहे थे, वे ट्रेन के आगे कटकर मर रहे थे, कई स्त्रियां भूखे बच्चो की जान बचाने के लिए वेश्यावृति के लिए बिवश हो गई थी। उस अकाल में करीब 30 लाख लोगो की जान चली गई थी। लोगो में इतनी शक्ति भी अब नहीं बची थी कि वे अंग्रेजो के विरुद्ध आवाज उठाये।
बंगाल का अकाल मानव इतिहास का सबसे भयानक दौर था जबकि वह पूरी तरह से मानव निर्मित अकाल था और जो अंग्रेजो के द्वारा जानबूझकर भारतीयों को मारने के लिए रचा गया था। एक ओर लोग जहाँ भूख से दम तोड़ रहे थे तो वही अंग्रेज और उसके चाटुकार भारतीय क्लबों में स्त्रियों के साथ ऐय्यासी में लगे थे जबकि कोलकाता, ढाका, कटक जैसे कई शहरो में भूख से मरे लोगो के कंकाल जहाँ तहाँ बिखड़े पड़े थे। उनका अंतिम संस्कार तो दूर उनको पहचानने वाला भी कोई नहीं था। लाशें जहाँ तहाँ पड़ी होती थी। लेकिन उस अकाल के लिए न केवल अंग्रेज बल्कि वे भारतीय भी जिम्मेदार थे जो अंग्रेजो के जूठे चाटा करते थे। उन गद्दारों नें, उन गद्दारों के परिवारों नें अंग्रेजो को यहाँ शासन स्थापित करने, शासन चलाने में सदैव साथ दिया था। वें लोग अंग्रेजो के, अंग्रेजी शासन के समर्थक थे। लेकिन यह इतिहास का एक कडुआ सच हैं कि उस अकाल ने बंगाल, उड़ीसा, बिहार (आज का झारखण्ड सहित) को कई दशक पीछे धकेल दिया था।
भारत को आजादी उसके विभाजन के साथ मिली
सत्ता में आते ही लेबर पार्टी ने भारत की आजादी की प्रक्रिया शुरू कर दी। 1945 में दूसरे विश्वयुद्ध की भी समाप्ति हो चुकी थी और उसी वर्ष अंग्रेजो ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग से भारत को आजाद करने पर बातचीत शुरू कर दी। मुस्लिम लीग चाहती थी उसे ही भारत के मुसलमानो के प्रतिनिधि के तौर पर समझा जाएं जबकि कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं थी। दोनों के बीच यही मतभेद भारत और पकिस्तान के विभाजन का आधार बना। इस तरह भारत का विभाजन केवल और केवल धर्म के आधार पर हो गया। मुस्लिम लीग का कहना साफ़ था हिन्दू मुस्लिम एक साथ नहीं रह सकते है और आजादी के बाद मुस्लिम के लिए एक अलग देश होना चाहिए।
20 फरवरी, 1947 को ब्रिटेन के तात्कालिक प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की थी कि 30 जून 1948 से पहले भारत को आजाद कर दिया जाएगा। उसी क्रम में 3 जून, 1947 को तय हुआ कि भारत को 15 अगस्त, 1947 को आजाद कर दिया जाएगा और इसी दिन यह भी निश्चित हुआ कि भारत की आजादी दो देशो के विभाजन भारत और पाकिस्तान के रूप में होगी।
इस प्रकार भारत अंग्रेजो के हाथो स्वतंत्र हुआ मगर इस सच्चाई से कोई भी मुँह नहीं मोड़ सकता कि इन दुश्मनो को सफल होने में देश के ही गद्दारो ने उनका साथ दिया था। अब चाहे वे अंग्रेज हो या मुस्लिम हो, इन सबकी सफलता के पीछे यदि कोई था तो वह था देश का अपना ही गद्दार, वे गद्दार, जो थे तो भारतीय, जो थे तो हिन्दू, मगर उनलोगों ने सदैव से अखंड भारत का और हिन्दुओ का नुकसान पहुंचाने में कोई कमी नहीं छोड़ा। उन गद्दारो ने दुश्मनो का साथ दिया।
कहते है - "अगर भारत में गद्दार नहीं होते तो अंग्रेज क्या अंग्रेजो से पहले आये मुस्लिम शासको के लिए भी भारत पर अधिकार करना सम्भव नहीं होता। भारत आज कुछ और होता। भारत आज अविभाजित होता। भारत आज विश्व का गुरू होता। अविभाजित भारत (भारत सहित पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ईरान) आज हिन्दू राष्ट्र होता !"
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लेखन :
(राजीव सिन्हा लेखक है। साथ ही वे ज्योतिष शास्त्र व धर्म के भी जानकार है।)
Bilkul Sahi bat.... gandhi ji hi hai jo bharat ko 2 bhago me batt diye😡😡
जवाब देंहटाएंभारत में आजादी के बाद से मुस्लिम तुस्टीकरण की प्रथा जो चली आ रही है न, उसकी शुरुआत गाँधी ने ही की थी. वह मुँह से राम राम बोलने की ढोंग तो खूब करता था मगर मंदिर नहीं जाता था. उसके मुँह में राम मन में अल्लाह अल्लाह था. इसलिए हिन्दुओ को गाँधी का नाम भूलकर भी नहीं लेना चाहिए और जो गाँधी का गुणगान कर रहा है उसे मुहतोड़ जवाब देना चाहिए. मेरा यह आर्टिकल लिखने का उद्देश्य गाँधी की सच्चाई को सबके सामने लाना है.
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